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ब्रिटेन के राजघराने की उनके देश में ही इतनी इज्जत नहीं है जितना हमारे देश के प्रचार माध्यम देते हैं। आधुनिक लोकतंत्र का जनक ब्रिटेन बहुत पहले ही राजशाही से मुक्ति पा चुका है पर उसने अपने पुराने प्रतीक राजघराने को पालने पोसने का काम अभी तक किया है। यह प्रतीक अत्यंत बूढ़ा है और शायद ही कोई ब्रिटेन वासी दुबारा राजशाही को देखना चाहेगा। इधर हमारे समाचार पत्र पत्रिकाओं और टीवी चैनलों में सक्रिय बौद्धिक वर्ग इस राजघराने का पागलनपन की हद तक दीवाना है। ब्रिटेन के राजघराने के लोग मुफ्त के खाने पर पलने वाले लोग है। कोई धंधा वह करते नहीं और राजकाज की कोई प्रत्यक्ष उन पर कोई जिम्मेदारी नहीं है तो यही कहना चाहिए कि वह एक मुफ्त खोर घराना है। इसी राजघराने ने दुनियां को लूटकर अपने देश केा समृद्ध बनाया और शायद इसी कारण ही उसे ब्रिटेनवासी ढो रहे हैं। इसी राजघराने ने हमारे देश को भी लूटा है यह नहीं भूलना चाहिए। कायदा तो यह है कि देश को आज़ादी और लोकतंत्र का पाठ पढ़ाने वाले हमारे प्रचारकगण इस राजघराने के प्रति नफरत का प्रसारण करें पर यहां तो उनके बेकार और नकारा राजकुमारों के प्रेम प्रसंग और शादियों की चर्चा इस तरह की जाती है कि हम अभी भी उनके गुलाम हैं। खासतौर से हिन्दी समाचार चैनल और समाचार पत्र अब उबाऊ हो गये हैं। कभी कभी तो ऐसा लगता है कि हिन्दी समाचार चैनल अपने विज्ञापनदाताओं के गुलाम हैं। इनके विज्ञापनदाता अपने देश से अधिक विदेशियों पर भरोसा करते हैं। यही कारण है कि कुछ लोगों के बारे में तो यह कहा जाता है कि वह यहां से पैसा बैगों में भरकर विदेश जमा करने के लिये ले जाते हैं। हैरानी होती है यह सब देखकर। अपने देश के सरकारी बैंक आज भी जनता के भरोसा रखते हैं पर हमारे देश के सेठ साहुकार विदेशों में पैसा रखने के लिये धक्के खा रहे हैं।
बहरहाल भारतीय सेठों का पांव भारत में पर आंख और हृदय
ब्रिटेन और अमेरिका की तरफ लगा रहता है। कई लोगों को देखकर तो संशय होता है कि वह भारत के ही हैं या पिछले दरवाजे से भारतीय होने का दर्जा पा गये। अमेरिका की फिल्म अभिनेत्री को जुकाम होता है तो उसकी खबर भी यहां सनसनी बन जाती है। प्रचार माध्यमों के प्रबंधक यह दावा करते हैं कि जैसा लोग चाहते हैं वैसा ही वह दिखा रहे हैं पर वह इस बात को नही जानते कि उनको दिखाने पर ही लोग देख रहे हैं। उसका उन पर प्रभाव होता है। वह समाज में फिल्म वालों की तरह सपने बेच रहे हैं। विशिष्ट लोग की आम बातों को विशिष्ट बताने वाले उनके प्रसारण का लोगों के दिमाग पर गहरा असर होता है। ऐसा लगता है कि समाज में से पैसा निकालने की विधा में महारत हासिल कर चुके हमारे बौद्धिक व्यवसायी किसी नये सृजन की बजाय केवल परंपरागत रूप से विशिष्ट लोगों की राह पर चलने के लिये विवश कर रहे हैं। यह भी लगता है कि सेठ लोगों की देह हिन्दुस्तानी है पर दिल अमेरिका या ब्रिटेन का है। उनको लगता है कि अमेरिका, ब्रिटेन या फ्रांस उनके अपने देश हैं और उनकी तर्फ से वहां केवल धन वसूली करने के लिये पैदा हुए हैं। अगर यह सच नहीं है तो फिर विदेशी बैंकों में भारी मात्रा में भारत से पैसा कैसे जमा हो रहा है? सामाजिक, आर्थिक तथा धार्मिक शिखर पुरुषों को विदेश बहुत भाता है और राष्ट्रीय स्तर की बात छोड़िये स्थानीय स्तर के शिखर पुरुष बहाने निकालकर विदेशों का दौरा करते हैं।
प्रचार प्रबंधकों को लगता है कि जिस तरह पश्चिमी देशों में भारत की गरीबी, अंधविश्वास तथा जातिवादपर आधारित कहानियां पसंद की जाती हैं उसी तरह भारत के लोगों को पश्चिम के आकर्षण पर आधारित विषय बहुत लुभाते हैं। यही कारण है कि ब्रिटेन के बुढ़ा चुके राजघराने की परंपरा के वारिसों की कहानियां यहां सुनाई जाती हैं।
बहरहाल ऐसा लगता है कि हिन्दी समाचार चैनल बहुत कम खर्च पर अधिक और महंगे विज्ञापन प्रसारित कर रहे हैं। इन समाचार चैनलों के पास मौलिक
तथा स्वरचित कार्यक्रम तो नाम को भी नहीं। स्थिति यह है कि सारे समाचार चैनल आत्मप्रचार करते हुए अधिक से अधिक समाचार देने की गारंटी प्रसारित करते हैं। मतलब उनको मालुम है कि लोग यह समझ गये हैं कि समाचार चैनलों का प्रबंधन कहीं न कहीं विज्ञापनदाताओं के प्रचार के लिये हैं न कि समाचारों के लिये। आखिर समाचार चैनलों को समाचार की गारंटी वाली बात कहनी क्यों पड़ी रही है? मतलब साफ है कि वह जानते हैं कि उनके प्रसारणों में बहुत समय से समाचार कम प्रचार अधिक रहा है इसलिये लोग उनसे छिटक रहे हैं या फिर वह समाचार प्रसारित ही कब करते हैं इसलिये लोगांें को यह बताना जरूरी है कि कभी कभी यह काम भी करते हैं। विशिष्ट लोगों की शादियों, जन्मदिन, पुण्यतिथियों तथा अर्थियों के प्रसारण को समाचार नहीं कहते। इनका प्रसारण शुद्ध रूप से चमचागिरी है जिसे अपने विज्ञापनदाताओं को प्रसन्न करने के लिये किया जाता है न कि लोगों के रुझान को ध्यान में रखा जाता है। शाही शादी जैसे शब्द हमारे देश के अंग्रेजी के देशी गुलामों के मुख से ही निकल सकते हैं भले ही वह अपने को बौद्धिक रूप से आज़ाद होने का दावा करते हों।
बहरहाल जिस तरह के प्रसारण अब हो रहे हैं उसकी वजह से हम जैसे लोग अब समाचार चैनलों से विरक्त हो रहे हैं। अगर किसी दिन घर में किसी समाचार चैनल को नहीं देखा और ऐसी आदत हो गयी तो यकीनन हम भूल जायेंगे कि हिन्दी में समाचार चैनल भी हैं। जैसे आज हम अखबार खोलते हैं तो उसका मुख पृष्ठ देखने की बजाय सीधे संपादकीय या स्थानीय समाचारों के पृष्ठ पर चले जाते हैं क्योंकि हमें पता है कि प्रथम प्रष्ठ पर क्रिकेट, फिल्म या किसी विशिष्ट व्यक्ति का प्रचार होगा। वह भी पहली रात टीवी पर देखे गये समाचारों जैसा ही होगा। समाचार पत्र अब पुरानी नीति पर चल रहे हैं। उनको पता नहीं कि उनके मुख पृष्ठ के समाचार छपने से पहले ही बासी हो जाते हैं। हिन्दी समाचार चैनलों को भी शायद पता नहीं उनके प्रसारण भी बासी हो जाते हैं क्योंकि वही समाचार अनेक चैनलों पर प्रसारित होता है जो वह कर रहे होते हैं। एक ही प्रसारण सारा दिन होता है। शादियों और जन्मदिनों का सीधा प्रसारण पहले और बाद तक होता है।
कितने मेहमान आने वाले हैं, कितने आ रहे हैं, कितनी जगहों से आ रहे हैं। फिर कब जा रहे हैं, कहां जा रहे हैं जैसे जुमले सुने जा सकते हैं। संवाददाता इस तरह बोल रहे होते हैं जैसे आकाश से बिजली गिरने का सीधा प्रसारण कर रहे हों। वैसे ही टीवी अब लोकप्रियता खो रहा है। लोग मोबाइल और कंप्यूटर की तरफ आकर्षित हो रहे हैं। खालीपीली की टीआरपी चलती रहे तो कौन देखने वाला है।
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