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जनता पार्टी में नरेंद्र
मोदी की ताजपोशी की औपचारिकता भर बाकी है।
उनकी टीम का ऐलान हो चुका है। चुनावी रणभेरी बज
चुकी है। उनके समर्थक बम-बम वाले अंदाज में हैं। कांग्रेस
की हंसी उड़ाने का कोई भी मौका वह नहीं चूकते। उनके
समर्थक इन दिनों उन्हें सरदार पटेल की भूमिका में देखते हैं। भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेता यह कहने से
कभी नहीं हिचकते कि अगर नेहरू की जगह वल्लभभाई
पटेल देश के प्रधानमंत्री बनते, तो देश की दिशा और दशा,
दोनों ही अलग होती। यह अलग बात है कि पटेल अंतिम
सांस तक कांग्रेस के नेता रहे, पर आज संघ परिवार सरदार
पटेल को कांग्रेस से छीन लेना चाहता है। संघ की यह कोशिश गले नहीं उतरती। यह सही है कि कांग्रेस में रहने
के बाद भी पंडित नेहरू और सरदार पटेल की वैचारिक सोच
और प्रशासनिक समझ में फर्क था। यह भी सच है कि नेहरू
जहां आरएसएस के कट्टर विरोधी थे, वहीं पटेल को कुछ
लोग उसके प्रति नरम मानते हैं। यह भी कहा जाता है
कि दोनों नेताओं में मतभेद इस हद तक बढ़ गए थे कि नेहरू ने एक बार कांग्रेस पार्टी भी छोड़ने का मन बना लिया था,
लेकिन यह सही नहीं है कि पटेल ‘हिंदूवादी’ थे और वह
संघ की विचारधारा से पूरी तरह से सहमत थे। इसमें
किसी को तनिक भी संदेह नहीं होना चाहिए कि पटेल
पूरी तरह से ‘गांधीवादी’ थे। वह नेहरू की तरह ही कांग्रेस
की विचारधारा में रचे-बसे थे।तमाम मतभेदों के बावजूद वह नेहरू की कैबिनेट में बने रहे और कभी कांग्रेस
पार्टी नहीं छोड़ी। कहा जाता है कि जीवन के
आखिरी वक्त में जब पटेल बीमार पड़े और नेहरू उनको देखने
गए, तो पटेल ने नेहरू का हाथ पकड़कर कहा था- ‘जवाहर, तुम
मुझ पर यकीन नहीं करते।’ नेहरू का भी आत्मविश्वास
हिला हुआ था। वह व्यथित मन से बोले, ‘मेरा खुद पर भी यकीन नहीं रहा।’ यह प्रकरण इस बात का प्रमाण है
कि तमाम दूरियों, मतभेदों के बाद भी दोनों के बीच एक
रागात्मक रिश्ता था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नेहरू पर
हमला करने के लिए कश्मीर, चीन और मुस्लिम
मुद्दों का सहारा लेता है। इस पर वह नेहरू को माफ करने के
लिए तैयार नहीं, जबकि तमाम छोटी- छोटी रियासतों को भारत में मिलाने के लिए पटेल
की जबर्दस्त प्रशंसा करता है। और इसी संदर्भ में
कहा जाता है कि पटेल असली ‘राष्ट्रवादी’ थे। पर इस पूरे
विमर्श में कुछ बातें भुला दी जाती हैं। कुछ लोग
तो यहां तक कहते हैं कि पटेल कश्मीर को भारत से जोड़ने
के पक्ष में ही नहीं थे।बुजुर्ग पत्रकार कुलदीप नैयर ने अपनी पुस्तक बिटविन द लाइन्स में लिखा है कि 21
फरवरी, 1971 को दिए अपने इंटरव्यू में शेख अब्दुल्ला ने
उन्हें यह जानकारी दी थी। नैयर इस किताब में आगे
लिखते हैं कि नई दिल्ली को जब भारत में विलय
का कश्मीर के महाराजा का आवेदन मिला, तो पटेल बोले,
‘हमें कश्मीर के पचड़े में नहीं पड़ना चाहिए। हम पहले ही काफी दिक्कतों से जूझ रहे हैं।’ पर पंडित नेहरू कश्मीर
को भारत में मिलाने को उत्सुक थे। नैयर 27 सितंबर,
1947 को पटेल को लिखी नेहरू की एक
चिट्ठी का हवाला देते हैं। नेहरू लिखते हैं, ‘हमें
ऐसी कोशिश करनी चाहिए कि शेख अब्दुल्ला की मदद
से कश्मीर जल्द से जल्द भारत का अभिन्न अंग बन जाए।’ क्या इस ऐतिहासिक संदर्भ में पटेल को खलनायक और
नेहरू को नायक बनाना सही होगा? ठीक उसी तरह, जैसे
कश्मीर विवाद के संदर्भ में नेहरू को खलनायक बनाने
की कोशिश होती रहती है। और नेहरू को इस बात के लिए
कभी माफ नहीं किया जाता कि वह कश्मीर
का मसला संयुक्त राष्ट्र में ले गए और उसका अंतरराष्ट्रीयकरण हुआ। मुस्लिमों के सवाल पर
भी संघ परिवार नेहरू को माफ करने को तैयार नहीं है।
उसका मानना है कि नेहरू ने आजाद भारत में मुस्लिम
तुष्टीकरण की नींव रखी। इस मसले पर
भी दोनों दिग्गजों, यानी नेहरू और पटेल में एक राय
नहीं थी। जहां नेहरू मानते थे कि देश के विभाजन के बाद भी बहुसंख्यक हिंदुओं को अल्पसंख्यक
मुस्लिमों को सुरक्षा की गारंटी देनी होगी, वहीं सरदार
पटेल का मानना था कि यह जिम्मेदारी सिर्फ हिंदुओं
की नहीं, मुसलमानों की भी है। पटेल के इस नजरिये
की वजह से ही एक तबका उनको हिंदूवादी मानता है।
लेकिन यही तबका यह भूल जाता है कि पटेल ने गांधीजी के उस खिलाफत आंदोलन का जमकर समर्थन किया था,
जिसे संघ परिवार कांग्रेस में मुस्लिम तुष्टीकरण
की शुरुआत मानता है। वे यह भी भूल जाते हैं कि पटेल
की अगुआई वाली समिति ने संविधान के तहत मुस्लिम
तबके को आरक्षण देने की वकालत की थी, जिसे
ठुकरा दिया गया था। उसी मुस्लिम आरक्षण के सवाल पर संघ परिवार आज कांग्रेस की धज्जियां उड़ाता है।फिर संघ
परिवार यह कैसे भूल सकता है कि विभाजन के संदर्भ में
11 सितंबर , 1948 को गुरु गोलवलकर को लिखे खत में
सरदार पटेल ने साफ कहा था, ‘हिंदुओं को संगठित
करना और उनकी सहायता करना एक बात है, लेकिन
अपनी तकलीफ के लिए बेसहारा और मासूम पुरुषों, औरतों और बच्चों से बदला लेना बिल्कुल दूसरी बात ..
इनके सारे भाषण सांप्रदायिक विष से भरे थे.. इस जहर
का फल अंत में यही हुआ कि गांधीजी की अमूल्य जान
की कुर्बानी देश को सहनी पड़ी..।’ गांधीजी की हत्या के
बाद एक और खत सरदार पटेल ने 27 फरवरी, 1948 को हिंदू
महासभा के प्रमुख श्यामा प्रसाद मुखर्जी को लिखा था, जो बाद में जनसंघ के नेता संस्थापक बने। उन्होंने लिखा,
‘संघ की गतिविधियां, सरकार और राज्य व्यवस्था के
अस्तित्व के लिए स्पष्ट खतरा थीं।’ साफ है कि नरम
होने के बाद भी सरदार पटेल वैचारिक रूप से संघ परिवार के
करीब नहीं थे। वह एक अलग ध्रुव पर खड़े दिखाई देते हैं।
ऐसे में, पटेल को अपना नायक बनाना समझ में नहीं आता। बीजेपी और संघ को यह समझना होगा कि उधार के
नायकों से जंग नहीं जीती जाती। हर समाज और
विचारधारा को अपने नायक खुद ही गढ़ने होते हैं।
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