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जाति ही पूछो साधु की

yuva lekhak(AGE-16 SAAL)
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दिनों इलाहाबाद हाई कोर्ट ने जातिवादी रैलियों पर रोक
लगा दी। अदालत का सोचना है कि ऐसी रैलियों में
दूसरी जातियों के खिलाफ नफरत फैलायी जाती है।
जिससे समाज में टूटन पैदा होती है। अदालत ने ये
फैसला समाजवादी पार्टी और बीएसपी की ब्राह्मण
रैलियों के संदर्भ में दिया है। इसमे कोई दो राय नहीं कि जाति के बिना भारतीय राजनीति और समाज
दोनों की ही कल्पना नहीं की जा सकती। चुनावों में
जातियों के आधार पर उम्मीदवारों का चयन होता है। चुनाव
जीतने के लिये जातीय समीकरण को ध्यान में रखकर
रणनीति बनायी जाती है। एक जाति का वोट लेने के लेने
के दूसरी जातियों के खिलाफ नफरत का बीज बोया जाता है। राष्ट्रीय और प्रांतीय स्तर पर जाति विशेष
के नेताओं को आगे बढ़ाया जाता है। ऐसे में अदालत
का फैसला क्रांतिकारी लग सकता है। खासतौर से आज के
परिपेक्ष्य में जब कि भारत में एक नया शहरी मध्यवर्ग
खड़ा हो रहा है और देश में आधुनिकीकरण
की प्रक्रिया जोर पकड़ रही है। पर लोग ये भूल जाते हैं कि जाति इस देश की सचाई है। इस जातिवाद की वजह से
ही कभी बराबरी नहीं रही। भारत आदिकाल से
‘गैरबराबरी समाज’ रहा है। जहां किसी भी शख्स की समाज
में हैसियत उसकी जाति से ही आंकी और तय
की जाती रही है। इस जातिवाद के कारण ही ब्राह्मण,
क्षत्रिय और वैश्य यानी सवर्ण जातियों ने अपना वर्चस्व बनाये रखा और पिछड़ी जातियों, दलितों और
आदिवासियों को समाज के हाशिये पर ढकेल दिया। इन
पिछड़ी जातियों को न केवल सत्ता की भागीदारी से
वंचित किया बल्कि उनके साथ अमानवीय व्यवहार
भी किया। ऐसे में मेरी नजर में भारतीय समाज में सबसे
क्रांतिकारी कदम था संविधान के जरिये सबको बराबरी का अधिकार देना। यानी सदियों से
इतिहास का दंश झेल रही पिछड़ी जातियों को एक झटके
में सवर्ण जातियों के बराबर ला देना। जिस समाज में
पिछड़ी जातियों को अगड़ी जातियों के सामने
खड़ा होने का अधिकार नहीं था उन्हीं जातियों को अब
बराबरी पर लाना किसी क्रांति से कम नहीं था। पर अभी दिल्ली दूर थी। कानून के सामने
बराबरी का अधिकार मिल जाने का अर्थ
नहीं था कि पिछड़ी जातियों को वाकई में समाज में
बराबरी मिल गई। आजादी के इतने सालों के बाद आज
भी अगड़ी जातियों के सम्मुख
पिछड़ी जातियों को कमतर माना जाता है। तमाम तरक्की के बावजूद उनके साथ दोयम दर्जे का व्यवहार
होता है। उनको व्याहारिक जीवन में हेय दृष्टि से
ही देखा जाता है। हालांकि अब इसमें कमी आ रही है
लेकिन संवैधानिक बराबरी आज भी अधूरी है। शुरुआत में
तो पिछड़ी जातियों को सत्ता में भागीदारी के नाम पर
उनका सिर्फ शोषण किया गया। उनको सजावट की वस्तु बना दिया गया। जगजीवन राम जैसे प्रखर
नेता को कैबिनेट में जगह देकर उनके नाम पर
दलितों का वोट लिया गया। कांग्रेस पार्टी ने इस खेल
को काफी खूबसूरती तरह से खेला। सामाजिक बराबरी और
सत्ता में संख्या के अनुपात में भागीदारी के लिये
पिछड़ी जातियों को लंबा संघर्ष करना पड़ा। आजादी के पहले और बाद में दलितों के लिये बाबा साहेब आंबेडकर ने
लड़ाई लड़ी। आंबेडकर ने रिपब्लिकन पार्टी बनायी। पर
दलित चेतना में निर्णायक उभार नहीं पैदा कर पाये और
हारकर बौद्ध धर्म अपनाना पड़ा।आंबेडकर के बाद राममनोहर
लोहिया ने पिछड़ों को गोलबंद करने का प्रयास किया।
कांग्रेस तंत्र को तोड़ने के लिये उन्होने ‘गैरकांग्रेसवाद’ को बुलंद किया और कांग्रेस के मुस्लिम, दलित और
ब्राह्मण के गठजोड़ के खिलाफ ‘पिछड़ावाद’
को खड़ा करने की कोशिश की। लोहिया की असमय मौत
के बाद भी सामाजिक चेतना की ये धारा कमजोर नहीं पड़ी।
सत्ता में निर्णायक भागीदारी की तड़प जिंदा रही। और
अंत में जब बीजेपी के ‘अयोध्यावाद’ ने जोर पकड़ा तो वीपी सिंह की अगुआई में पिछड़ावाद की लड़ाई
भी तीव्र हुई। मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागू कर
पिछड़ों को 27 फीसदी आरक्षण देने के फैसले ने इस लड़ाई
को अचानक देश की राजनीति के केंद्र में ला दिया। सवर्ण
जातियों का वर्चस्व धराशायी होने लगा। उत्तर प्रदेश में
अगड़ी जाति के नारायण दत्त तिवारी की जगह मुलायम सिंह यादव, कल्याण सिंह दिखने लगे। बिहार में
जगन्नाथ मिश्रा के स्थान पर लालू यादव, नीतिश कुमार
की ताकत बढ़ने लगी। लालू यादव ने पंद्रह साल शासन
किया। इस बीच पंजाब से आकर कांशीराम ने यूपी में एक
नया प्रयोग किया। उन्होंने नारा दिया ‘तिलक, तराजू
और तलवार, इनको मारो जूते चार’ । बिहार में लालू यादव ने भी ‘भूरा बाल साफ करो’ का नारा उछाला। लालू-मुलायम-
कांशीराम की राजनीति अपने मूल में
जातिवादी राजनीति थी। अगड़ी जातियों के मुलाबले
पिछड़ी और दलित जातियों को एक झंडे के तहत
लाया गया। मुझें आज भी याद है कि जब मंडल कमीशन लागू
करने का ऐलान हुआ था तो अगड़ी जातियां किस तरह से आक्रामक हो गयी थीं। लालू यादव, मुलायम सिंह यादव,
कांशीराम और मायावती का जमकर मजाक उड़ाया गया था।
लालू यादव को ‘जोकर’ और मायावती को न जाने क्या-
क्या नहीं कहा गया। अगड़ी जातियों ने
जितना इनका विरोध किया ये नेता उतने ही मजबूत होते
गये। अगड़े तबके के प्रबुद्ध वर्ग ने कहना शुरू किया था कि मंडल कमीशन देश को तोड़ देगा। इस तबके
का तर्क था कि जाति के आधार पर आरक्षण गलत है।
आरक्षण आर्थिक आधार पर होना चाहिये और मेरिट
को तवज्जो दी जानी चाहिए। वर्ना देश का प्रशासनिक
ढ़ांचा टूट जायेगा। लेकिन ये लोग ये भूल गये कि आजादी के
बाद सबसे ज्यादा विकास तब हुआ जब देश मे पिछड़ी जातियों के हाथ में सत्ता आयी और प्रशासन में
उनकी भागीदीर बढ़ी। आज इतिहास का पहिया उल्टा चल
रहा है। ज्यादा वक्त नहीं बीता जब अगड़ी जातियां चुनाव
जीतने के लिये पिछड़ी जातियों को अपने साथ लाने के
लिये जोर लगाती थीं। अब उसी सत्ता के लिये
पिछड़ी जातियां अगड़ी जातियां को लुभा रही हैं। 2007 के चुनाव के समय मायावती ने उत्तर प्रदेश के
ब्राह्मणों को अपने साथ मिलाने के लिये जतन किये।
सतीष मिश्रा को ब्राह्मण नेता के तौर पर पेश किया गया।
मायावती पहली बार बहुमत पाने में कामयाब रहीं। बात साफ है
जातिवाद के नाम पर अगर पिछड़ी जातियां गोलबंद
नहीं होती तो संवैधानिक बराबरी मिलने के बाद आज भी इन जातियों को राजनीतिक गैरबराबरी का दंश
झेलना पड़ता। ऐसे में
जातिवादी राजनीति की भर्त्सना करने के पहले हमें
इतिहास के इस तर्क को समझना पड़ेगा। मेरा मानना साफ है
कि सामाजिक स्तर पर जातिवाद भले
ही किसी अभिशाप से कम न हो लेकिन ‘राजनीतिक- जातिवाद’ ने समाज में बराबरी लाने का ऐतिहासिक काम
किया है। बिना उसके पिछड़ी जातियों को न
तो सत्ता में भागीदारी मिलती और न ही सत्ता में आने
की वजह से मिलता सामाजिक सम्मान। इसलिये अदालत
का फैसला अपनी जगह, सामाजिक सचाई अपनी जगह।

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