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भारत कि सबसे लोकप्रिय भाषा कहे जाने वाली हिन्दी का लोकप्रियता कुछ और ही बढने वाली है। 14 सितम्बर के दिन पूरा भारत हिन्दीमय नजर आयेगा। हर अखबार और पत्रिकाओँ मे हिन्दी दिवस आलेख नजर आयेगेँ। और तो और इस इन्टरनेट पर भी हिन्दी पुरी तरह से छायी रहेगी। पुरे सोशल साइटो पर इसकी झलक देखी जायेगी
उस दिनो मानो तो अंग्रेजी पर ग्रहण लगेगा
इस धरती पर मनुष्य
की उदय-वेला इतिहास हिन्दी के द्वारा ही रूपायित
हुआ है। हिन्दी इस विराट् भारत
की सर्जना शक्ति होने के कारण भारत के समस्त
पदार्थों में व्याप्त है। वह अनन्तरूपा है और उसके
इन अनन्त रूपों की अभिव्यक्ति एवं निष्पत्ति का आधार परमेश्वर है। जितने
भी तत्त्ववित्, साहित्यसृष्टा और कलाराधक हुए,
उन सबने भिन्न-भिन्न मार्गों का अवलम्ब लेकर
उसी एकमेव लक्ष्य का अनुसन्धान किया।
विभिन्न युगों में हिन्दी के रूप
की परिकल्पना विभिन्न दृष्टिकोणों से की जाती रही है। हिन्दी को आज जो लोकसम्मान प्राप्त है और
सम्प्रति उसको जिस रूप में परिभाषित
किया जा रहा है, वह अतीत की अपेक्षा सर्वथा भिन्न
है। उसको ‘वस्तु का रूप सँवारने
वाली विशेषता, कहा गया है, जैसा कि क्षेमराज
की ‘शिवसूत्रविमर्षिणी’ से स्पष्ट
है-‘कलयति स्वरूपं आवेशयति वस्तूनि वा’।
किन्तु परवर्ती युगों, और विशेष रूप से वर्तमान समय में हिन्दी को जिस रूप में ग्रहण किया जा रहा है
उसकी सीमा न तो ‘वैचित्र्य’ या ‘हस्तकौशल’ तक
ही सीमित है और न उसका उद्देश्य ‘वस्तु सँवारना’
मात्र है। हिन्दी के लिए ‘कौशल’ कहने की इस
सख्ती मनोवृत्ति का प्रचलन तब हुआ, जब उसका एक
मात्र उद्देश्य विलासिता तथा मनोरंजन माना जाने
लगा। इस प्रकार के सभी कौशल का संबंध मनोरंजन से
था; और यद्यपि हिन्दी के चौंसठ या इससे भी अधिक
भेद करके तब यह माना जाने लगा कि हिन्दी का क्षेत्र इतना व्यापक है कि उसके अन्तर्गत ज्योतिष-
दर्शन-व्याकरण आदि विद्याओं का भी समावेश
हो जाता है, तथापि वास्तव में इस प्रवृत्ति ने
कलामान और कलाबोध, दोनों की स्वस्थ गवेषणा एवं
स्थापना को व्यर्थ के बौद्धिक विलास में
खो दिया। हिन्दी विषयक इस विलासिता की प्रवृत्ति का व्यापक रूप में प्रचार-
प्रसार रहा। किन्तु इसका आशय यह नहीं है कि समस्त समाज इस
सस्ती मनोवृत्ति से अभिभूत था;
बल्कि दूसरी ओर हिन्दी की धार्मिक
तथा आध्यात्मिक परम्पराओं को स्वीकार किये
जाने के साथ-साथ उसको व्यावहारिक जीवन में एकरस
करने के लिए भी प्रयत्न किये जाते रहे। हिन्दी की उत्पत्ति में धर्म की प्रेरणा हिन्दी की उत्पत्ति के मूल में हमें धार्मिक
भावना की प्रधानता दिखायी देती है;
प्रागैतिहासिक युग की कलाकृतियों के संबंध में
यह बात विशेष रूप से चरितार्थ होती है। हम देखते
हैं कि आदिम युग में मनुष्य ने पार्थिव वस्तुओं
को आध्यात्मिक रूप देने के लिए आकाश, पृथ्वी, ग्रह, नक्षत्र, नदियों, पर्वत, ऋतुओं आदि के
रहस्यों को आँकने का यत्न किया। उसने उन
सभी वस्तुओं में एक अदृश्य शक्ति की कल्पना की,
जिन वस्तुओं की वह जानकारी प्राप्त न कर सका था।
न केवल भारत में, बल्कि विश्व की समस्त
जातियों की संस्कृति के मूल में धार्मिक भावना की प्रधानता व्यापक रूप में देखने
को मिलती है। यूनान, चीन और भारत के
लोगों को हिन्दी की प्रेरणा प्रकृति से मिली।
प्रकृति को तब एक अदृश्य शक्ति के रूप में
स्वीकार किया गया। वेदों के ऋषियों ने
प्रकृति के अनेक रूपों की पूजा करके उन्हें देवत्व का स्थान दिया। ये दैवी शक्तियाँ ही बाद
में स्वर्ग-नरक, लोक-परलोक, आत्मा-परमात्मा,
यहाँ तक कि ब्रह्मा, विष्णु और महेश आदि अनेक
नाम-रूपों में अभिहित की गयीं। धर्म के प्रति मनुष्य की स्वाभाविक
रुचि को दृष्टि में रखकर ही भारतीय
चित्रकला का निर्माण हुआ। प्रागैतिहासिक युग
के जितने भी कलावशेष प्राप्त हुए हैं,
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