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‘हिन्दी बाजार की भाषा है, गर्व की नहीं’ या ‘हिंदी गरीबों, अनपढ़ों की भाषा बनकर रह गई है’ (“Contest”)

yuva lekhak(AGE-16 SAAL)
yuva lekhak(AGE-16 SAAL)
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आज हम स्वतंत्र देश के स्वतंत्र नागरिक हैं। हमारी राष्ट्र
भाषा हिंदी है, इस भाषा को बोलने वाले विश्व में सबसे
अधिक लोग हैं। अंग्रेजी को ब्रिटेन के लगभग दो करोड़
लोग मातृ भाषा के रूप में प्रयोग करते हैं,
जबकि हिंदी को भारत वर्ष में उत्तर प्रदेश, राजस्थान,
हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, दिल्ली, बिहार, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ जैसे प्रांतों में लगभग साठ, पैंसठ करोड़ लोग
अपनी मातृ भाषा के रूप में प्रयोग करते हैं। जबकि इसे संपर्क
भाषा के रूप में पूरे देश में समझा जाता है और देश से बाहर
श्रीलंका, नेपाल, वर्मा, भूटान, बांगलादेश और पाकिस्तान
सहित मारीशस जैसे सुदूरस्थ देशों में
भी बोला समझा जाता है। इससे विश्व की सबसे समृद्घ भाषा और सबसे अधिक बोली व समझी जाने
वाली भाषा हिंदी है, लेकिन इस हिंदी को कांग्रेस
की सोनिया गांधी सेवकों की अर्थात
नौकरों की भाषा बताती हैं। इसमें दोष
सोनिया गांधी का नही है अपितु दोष कांग्रेस और
कांग्रेसी संस्कृति का है, कांग्रेसी विचारधारा और कांग्रेसी मानसिकता का है। पंडित जवाहर लाल नेहरू इस देश के पहले प्रधानमंत्री बने।
तब उन्होंने देश में हिंदी के स्थान हिंदुस्तानी नाम की एक
नई भाषा को इस देश की संपर्क भाषा के रूप में स्थापित करने
का अनुचित प्रयास किया।
उनका मानना था कि हिंदुस्तानी में सभी भाषाओं के शब्द
समाहित कर दिये जाएं और उर्दू के अधिकांश शब्द उसे देकर पूरे देश में लागू किया जाए। हमारा तत्कालीन नेतृत्व यह
भूल गया कि प्रत्येक भाषा की अपनी व्याकरण होती है,
हिंदी की अपनी व्याकरण है। जबकि उर्दू
या हिंदुस्तानी की अपनी कोई व्याकरण नही है। इसलिए
शब्दों की उत्पत्ति को लेकर उर्दू या हिंदुस्तानी बगलें
झांकती हैं, जबकि हिंदी अपने प्रत्येक शब्द की उत्पत्ति के विषय में अब तो सहज रूप से
समझा सकती है, कि इसकी उत्पत्ति का आधार क्या है? भारत में काँग्रेस ने किस प्रकार
हिंदी का दिवाला निकाला इसके लिए तनिक इतिहास
के पन्नों पर हमें दृष्टिपात करना होगा। 25वें
हिंदी साहित्य सम्मेलन सभापति पद से
राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद जी ने कहा था-’हिंदी में जितने
फारसी और अरबी के शब्दों का समावेश हो सकेगा उतनी ही वह व्यापक और प्रौढ़
भाषा हो सकेगी।’इंदौर सम्मेलन में गांधी जी डॉ. राजेन्द्र
प्रसाद के भाषण से भी आगे बढ़ गये थे, जब उन्होंने
हिंदी और उर्दू दोनों भाषाओं को एक ही मान लिया था।
कांग्रेस राजनीतिक अधिकारों के बंटवारे के साथ
भाषा को भी सांम्प्रदायिक रूप से बांटने के पक्ष में रही है। इसीलिए भारत में साम्प्रदायिक आधार पर
प्रांतों का विभाजन तो हुआ ही है, यहां भाषाई आधार पर
भी प्रांतों का विभाजन और निर्माण किया गया है। प्रारंभ में कांग्रेसी लोग कथित हिंदुस्तानी भाषा में उर्दू के
तैतीस प्रतिशत शब्द डालना चाहते थे, परंतु मुसलमान पचास
प्रतिशत उर्दू के शब्द मांग रहे थे, जबकि मुसलिम लीग के
नेता जिन्ना इतने से भी संतुष्ट नही थे। कांग्रेस के एक
नेता मौहम्मद आजाद का कहना था कि उर्दू का ही दूसरा नाम
हिंदुस्तानी है जिसमें कम से कम सत्तर प्रतिशत शब्द उर्दू के हैं। पंजाब के प्रधानमंत्री सरब सिकंदर हयात खान
की मांग थी कि हिंदुस्तान की राष्ट्र भाषा तो उर्दू
ही हो सकती है, हिंदुस्तानी भी नही, इसलिए कांग्रेस
को उर्दू को ही राष्ट्र भाषा बनाना चाहिए। यदि हम स्वतंत्रता के बाद के इतिहास के कालखण्ड पर
दृष्टिपात करें तो हिंदी के बारे में हमारे देश
की सरकारों का वही दृष्टिकोण रहा है जो स्वतंत्रता पूर्व
या स्वतंत्रता के एकदम बाद कांग्रेस का इसके प्रति था। आज
भी यह देखकर दुख होता है कि हिंदुस्तानी नाम
की जो भाषा प्रचलन में आई है उसने हिंदी को बहुत पीछे धकेल दिया है। पूरे देश में अंग्रेजी और उर्दू मिश्रित
भाषा का प्रचलन समाचार पत्र-पत्रिकाओं में भी तेजी से
बढ़ा है। इसका परिणाम ये आया है कि नई पीढ़ी हिंदी के
बारे में बहुत अधिक नही जानती।
विदेशी भाषा अंग्रेजी हमारी शिक्षा पद्घति का आधार
बनी बैठी है, जो हमारी दासता रूपी मानसिकता की प्रतीक है। यदि राष्ट्र भाषा हिन्दी को प्रारंभ से फलने फूलने
का अवसर दिया जाता तो आज भारत में जो भाषाई दंगे होते
हैं, वो कदापि नही होते। भाषा को राजनीतिज्ञों ने
अपनी राजनीति को चमकाने के लिए एक हथियार के रूप
में प्रयोग किया है। महाराष्ट्र जैसे देशभक्तों के प्रांत में
भाषा के नाम पर महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के प्रमुख राजठाकरे जो कुछ कर रहे हैं उसे कतई भी उचित
नही कहा जा सकता। भाषा के नाम पर महाराष्ट्र से
बिहारियों को निकालना और उत्तर भारतीयों के साथ
होने वाला हिंसाचार हमारे सामने जिस प्रकार आ रहा है
उससे आने वाले कल का एक भयानक चित्र रह-रहकर
उभरता है।

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