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“नव परिवर्तनों के दौर में हिन्दी ब्लॉगिंग”(“Contest”)

yuva lekhak(AGE-16 SAAL)
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सितम्बर महीना प्रारंभ हो गया है। अंतर्जाल पर सक्रिय अपने बीस हिन्दी ब्लॉग पत्रिकाओं की स्थिति का अवलोकन करने पर पता चला कि पाठक संख्या दो गुना से अधिक बढ़ी है। 14 सितंबर को हिन्दी दिवस के आसपास अधिकतर ब्लाग अपने निर्माणकाल से अब तक की सर्वाधिक संख्या का पिछला कीर्तिमान ध्वस्त कर देंगे। अभी इस लेखक के बीस ब्लॉग के नियमित पाठक दो हजारे से पच्चीस सौ के आसपास है। 14 सितम्बर के आसपास यह संख्या प्रदंह से बीस हजार के आसपास पहुंच सकती है। पिछली बार यह संख्या दस हजार के आसपास थी। कुछ ब्लाग तो अकेले ही दो हजार के पास पहुंचे थे पार नहीं हुए यह अलग बात है। इस बार लगता है कि वह दो हजारे की संख्या पार करेंगे। हिन्दी दिवस के तत्काल बाद उनका जो हाल होगा वह दर्दनाक दिखेगा। 14 सितंबर के आसपस ऐसा लगेगा कि पूरा देश हिन्दी मय हो रहा है तो तत्काल बाद यह अनुभव होगा कि अंग्रेजी माता ने अपना वर्चस्व प्राप्त कर लिया है। एक तरह से 14 सितंबर का दिन अंग्रेजी के लिये ऐसा ही होता है जैसे कि सूर्यग्रहण या चंद्रग्रहण। उस दौरान अंग्रेजी और भारतीय समाज के बीच हिन्दी नाम का ग्रह ऐसे ही आता है जैसे ग्रहण लग रहा हो। धीरे धीरे जैसे ग्रहण हटता वैसे ही कम होती पाठक संख्या अं्रग्रेजी को अपने पूर्ण रूप में आने की सुविधा प्रदान करती है। यह ब्लॉग लेखक अंतर्जाल पर छह साल से सक्रिय है। प्रारंभ में हिन्दी दिवस पर अनेक लेख लिखे। यह लेख आजकल अंतर्जाल पर छाये हुए हैं। इसमें एक लेख हिन्दी के महत्व पर लिखा था। उस पर कुछ बुद्धिमान पाठक अक्सर नाराजगी जताते हैं कि उसमे हिन्दी का महत्व नहीं बताया गया। कुछ तो इतनी बदतमीजी से टिप्पणियां इस तरह लिखते हैं जैसे कि लेखक उनके बाप का वेतनभोगी नौकर हो। तब मस्तिष्क के क्रोध की ज्वाला प्रज्जवलित होती है जिसे अपने अध्यातिमक ज्ञान साधना से पैदा जल डालकर शांत करना पड़ता है। अंतर्जाल पर अब हमारा सफर अकेलेपन के साथ है। पहले इस आभासी दुनियां के एक दो मित्र अलग अलग नामों से जुड़े थे पर फेसबुक के प्रचलन में आते ही वह नदारत हो गये। यह मित्र व्यवसायिक लेखक हैं यह अनुमान हमने लगा लिया था इसलिये उनकी आलोचना या प्रशंसा से प्रभावित नहीं हुए। अलबत्ता उनके बारे में हमारी धारणा यह थी कि वह सात्विक प्रवृत्ति के होंगे। इनमें से कुछ मित्र अभी भी ब्लाग वगैरह पर सम्मेलन करते हैं पर हमारी याद उनको याद नहीं आती। इससे यह बात साफ हो जाती है कि अंतर्जाल पर लेखन से किसी प्रकार की आशा रखना व्यर्थ है। सवाल यह पूछा जायेगा कि फिर यह लेख लिखा क्यों जा रहा है? हिन्दी लेखन केवल स्वांतसुखाय ही हो सकता है और जिन लोगों को यह बुरी आदत बचपन से लग जाती है वह किसी की परवाह भी नहीं करते। लिखना एकांत संाधना है जिसमें सिद्ध लेखन हो सकता है। शोर शराबा कर लिखी गयी रचना कभी सार्थक विंषय को छू नहीं सकती। जिस विषय पर भीड़ में या उसे लक्ष्य कर लिखा जायेगा वह कभी गहराई तक नहीं पहुंच सकता। ऐसे शब्द सतह पर ही अपना प्रभाव खो बैठते हैं। इसलिये भीड़ में जाकर जो अपनी रचनाओं प्रचार करते हैं वह लेखक प्रसिद्ध जरूर हो जाते हैं पर उनका विषय कभी जनमानस का हिस्सा नहंीं बनता। यही कारण है कि हिन्दी में कबीर, तुलसीदास, मीरा, सूरदास, रहीम तथा भक्ति काल के गणमान्य कवियों के बाद उन जैसा कोई नहीं हुआ। प्रसिद्ध बहुत हैं पर उनकी तुलना करने किसी से नहीं की जा सकती। वजह जानना चाहेंगे तो समझ लीजिये संस्कृत के पेट से निकली हिन्दी अध्यात्म की भाषा है। सांसरिक विषयों -शिक्षा, स्वास्थ्य, साहित्य तथा विज्ञान- पर इसमें बहुत सारे अनुवाद हुए पर उनका लक्ष्य व्यवसायिक था। इससे हिन्दी भाषियों को पठन पाठन की सुविधा हुई पर भाषा तो मौलिक लेखन से समृद्ध होती है। जिन लोगों ने मौलिक साहित्य लेखन किया वह सांसरिक विषयों तक ही सीमित रहे इस कारण उनकी रचनायें सर्वकालीन नहीं बन सकीं। भारतीय जनमानस का यह मूल भाव है कि वह अध्यात्म ज्ञान से परे भले ही हो पर जब तक किसी रचना में वह तत्व नहीं उसे स्वीकार नहीं करेगा। यही कारण है कि जिन लेखकों या कवियों से अध्यात्म का तत्व मिला वह भारतीय जनमानस में पूज्यनीय हो गया।हिन्दी भाषा को रोटी की भाषा बनाने के प्रयास भी हुए। उसमें भी सफलता नहीं मिली। कुछ लोगों ने तो यह तक माना कि हिन्दी अनुवाद की भाषा है। यह सच भी है। भारत विश्व में जिस प्राचीनकालीन अध्यात्मिक ज्ञान के कारण गुरु माना जाता है वह संस्कृत में है। यह तो भारत के कुछ धाार्मिक प्रकाशन संगठनो की मेहरबानी है कि वह ज्ञान हिन्दी में उपलब्ध है । इतना ही नहीं हिन्दी के जिस भक्तिकाल को स्वर्णकाल भी कहा जाता है वह भी कवियों की स्थानीय भाषा में है जिसे हिन्दी में जोड़ा गया।

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