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हक खारिज का

yuva lekhak(AGE-16 SAAL)
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सर्वोच्च न्यायालय के ताजा आदेश के अनुसार फिलहाल
तो मतदाता को नकारात्मक मतदान का अधिकार मिल
गया है। न्यायाधीश पी सतशिवम
की अध्यक्षता वाली खण्डपीठ ने उम्मीदवारो को खारिज
करने का अधिकार दे दिया है। अदालत ने चुनाव निर्वाचन
आयोग को निर्देश दिए है कि वह र्इबीएम मशीनों में विकल्प के रुप में खारिज का बटन शामिल करें।
हालांकि आयोग इस विकल्प का समर्थन पहले ही कर
चुका है। लेकिन केंद्र सरकार इसके समर्थन में नहीं थी।
हालांकि वर्तमान चुनाव प्रणाली में प्रारुप 49 एक
ऐसी अर्जी है जो उम्मीदवारों को नकारने का अधिकार
मतदाता को देती है। लेकिन इसमें गोपनीयता नहीं बनी रहती। अन्ना हजारे और अरविंद
केजरीवाल भी अरसे से मांग कर रहे थे कि चुनाव लड़ रहे
उम्मीदवारों में से कोर्इ
भी मतदाता की उम्मीदों का खरा उतरने वाला उम्मीदवार
नहीं है तो उसकी नपसंदगी को तरजीब दी जाए।
हालांकि भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंन्द्र मोदी भी खारिज के हक का समर्थन कर चुके हैं। यह बयान
उन्होंने गांधी नगर में आयोजित यंग इंडिया कानकेल्ब में
दिया था। कुछ समय पहले कानून मंत्री सलमान खुर्शीद ने
भी इस कदम को सही ठहराया था। लेकिन लगता नही है
कि केंद्र सरकार अदालत के इस ऐतिहासिक फैसले
को स्थिर रहने देगी। इसे कुछ ही समय में बदल देने की आशंका जतार्इ जाने लगी है। प्रतिनिधि को खारिज करने अथवा वापस बुलाने
का मुददा कोर्इ नया नहीं है। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ व
राजस्थान समेत कुछ अन्य राज्यों में पहले से ही पंचायती राज
व्यवस्था में प्रतिनिधियों को वापस बुलाने का अधिकार
जनता को मिला हुआ है। किंतु सांसद और विधायकों पर
यह नियम लागू नहीं होता। छत्तीसगढ़ में तो सीधे लोकतंत्र को पुख्ता करने के लिहाज से तीन
शहरी निकायों के चुनाव में निर्वाचित
प्रतिनिधि को वापस बुलाने का अधिकार शामिल
किया गया है। किसी भी राज्य में जवाबदेही सुनिश्चित
करने के नजरिए से जनमत संग्रह और
प्रतिनिधि को वापस बुलाने अथवा खारिज करने के घटकों का भय व्याप्त होना जरुरी है। अमेरिका में तो यह
अधिकार 1903 से लागू है। वहां दो राज्यपालों तक को इस
अधिकार के चलते पदच्युत होना पड़ा। कनाडा में
प्रधानमंत्री को वापस बुलाने का हक जनता को मिला है।
वेनेजुएला में इसी हक के चलते राष्ट्रपति हयूगो चावेज
को जनमत संग्रह करके राष्ट्रपति जैसे महत्वपूर्ण पद से हटा दिया गया था। यदि अदालत का यह फैसला वजूद में बना रहता है तो इससे
राजनीति में अपराधीकरण और भ्रष्ट
प्रत्याशियों को टिकट दिए जाने पर अंकुश लगेगा।
जवाबदेही से निषिंचत रहने वाले और सरकारी सुविधाओं
का उपभोग करने वाले प्रतिनिधि भी प्रभावित होंगे।
इससे राजनीतिक दलों को सबक मिलेगा और इस तरह का अधिकार मतदाताओं को मिलने से देश में एक नये युग
का सूत्रपात संभव होगा। भारतीय लोकतंत्र और
राजनीति के वर्तमान परिदृष्य में जो अनिश्चय, असंमजस
और हो-हल्ला का कोहरा छाया हुआ है, इतना गहरा और
अपारदर्शी इससे पहले कभी नहीं रहा। शेर-गीदड़, कुत्ते-
बिल्ली एक ही घाट से पानी पीने में लगे हैं। राष्ट्रीय हित व क्षेत्रीय समस्याओं को हाशिए पर छोड़ जन
प्रतिनिधियों ने जिस बेशर्मी से सत्ता को स्वयं
की समृद्धि का साधन बना लिया है, उससे लोकतंत्र
का लजिजत होना स्वाभाविक है। इन स्थितियों में
मतदाता को नकारात्मक मतदान का अधिकार यह सोचने के
लिए बाध्य करेगा कि लोकतंत्र का प्रतिनिधि र्इमानदार, नैतिक दृष्टि से मजबूत और
जनता के प्रति जवाबदेह हो। इसलिए अब अदालत के फैसले
से उत्प्ररित होकर सरकार को संविधान में संशोधन कर
प्रत्याशियों को अस्वीकार करने अथवा बीच में वापिस
बुलाने का अधिकार दे ही दिया जाना चाहिए। हालांकि 1996 में लोकसभा के आम चुनावों के दौरान एक
बड़े जनसमूह ने आन्दोलित हो रही इस मंशा से तमिलनाडू
और आंध्रप्रदेश की दो लोकसभा व एक विधानसभा सीट पर
ज्यादा उम्मीदवार खड़े किए थे। उम्मीदवारों की भीड़
को लेकर चुनाव आयोग भी विवश हो गया और अन्तत:
आयोग को चुनाव कार्रवार्इ स्थगित करनी पड़ी थी। जनता द्वारा की गर्इ यह कार्रवार्इ उम्मीदवारों को नकारने
की दिशा में एक शुरुआत थी। तीन चुनाव क्षेत्रों में
उम्मीदवारों की एक भीड़ का उभरना सहज घटना नहीं थी ?
क्षेत्रीय मतदाताओं की यह एक सोची-
समझी रणनीति थी, जिससे पूरी चुनाव
प्रकि्रया को असहज व असंभव बना दिया जाए। उम्मीदवारों के विरुद्ध जनता द्वारा नकारने
की अभिव्यकित को धरातल पर लाने के लिए
मोदाकरीची विधानसभा क्षेत्र में अकेले तमिलनाडू कृषक
संघ ने 1208 प्रत्याशी खड़े किए थे। आन्ध्रप्रदेश के
नलगोंडा और तमिलनाडू के बेलगाम संसदीय क्षेत्रों में
क्रमश: 480 और 446 प्रत्याशी मैदान में उतारे थे। इस सिलसिले में नलगोंडा किसान संघ के नेता इनुगु
नरिसिम्हा रेडडी का कहना था, हमारा मकसद चुनाव
जीतना नहीं बलिक उन राजनेताओं के मुंह पर चपत लगाना है,
जो पिछले 15 सालों से हमारे संघ द्वारा उठार्इ
जा रही सिंचार्इ समस्याओं के प्रति उदासीन, लापरवाह व
निष्क्रिय रहे हैं। बेलगाम की समस्या भी इसी तरह की थी। लिहाजा तय है कि चुने
प्रतिनिधियों द्वारा चुनावी वादे डेढ़ दशक में भी पूरे
नहीं किए जाने के कारण कृषक संघों ने
जनप्रतिनिधियों के प्रति विरोध जताने व उन्हें
नकारने की दृष्टि से चुनाव प्रकि्रया को खारिज करने के
लिए बड़ी संख्या में उम्मीदवारों को खड़ा किया था। यदि मतदाता के पास उस समय उम्मीदवारों को नकारने
का अधिकार मतपत्र अथवा र्इबीएम में मिला होता तो वह
चुनाव प्रकि्रया को नामुमकिन बनाने की बजाए मतपत्र में
उल्लेखित प्रतिनिधियों को नकारने के खाने में मोहर
लगाकर अपने आक्रोश को वैधानिक अभिव्यकित देते। हालांकि राजनीतिक दल आसानी से मतदाता को नकारने
अथवा कार्यकाल के बीच, वापस बुलाने का हक नहीं देंगे,
क्योंकि इससे प्रत्येक राजनेता के भविष्य पर हर चुनाव में
नकारने अथवा वापस बुलाने की तलवार लटकी रहेगी। वैसे
भी वर्तमान राजनीतिक परिदृष्य में राजनीतिक दल
मुददाविहीन हैं। नकारात्मक वोट प्रापित के लिए गठजोड़ बिठाते रहते है। ऐसी मनस्थिति में
मतदाता सत्ता परिवर्तन से ज्यादा आचरणहीन
सत्ताधारियों को अस्वीकार करने की इच्छा पाले हुए हैं,
जिससे व्यवस्था की जड़ता दूर हो और उसमें
गतिशीलता आए। मतदाता को निर्वाचित
प्रतिनिधि वापस बुलाने का अधिकार देने से बचने के लिए हमारे नीति निर्माता अपने हितों पर आघात न
पहुंचे इसलिए चाहेंगे कि चुनाव क्षेत्रों में
प्रत्याशियों की या तो एक निश्चित संख्या तय कर
दी जाए अथवा निर्दलीय उम्मीदवार को प्रदत्त चुनाव
लड़ने का अधिकार समाप्त कर दिया जाए ? वैसे
भी संविधान में राजनीतिक संरचना की बुनियाद पार्टी है।चुनाव परिणाम आने के बाद केंद्र में
राष्ट्रपति तथा प्रदेशो में राज्यपाल जीत कर आर्इं
बड़ी पार्टी के रुप में आने वाली पार्टी के संसदीय और
विधायक दल के नेता को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित
करते हैं। किंतु निर्वाचन संपन्न कराने के आधार में
नागरिक के बुनियादी अधिकार शामिल हैं। जिसमें प्रत्येक भारतीय नागरिक को मतदान करने व चुनाव लड़ने के
अधिकार प्रदत्त हैं। वर्तमान परिदृष्य में आपराधिक, सत्ता व धनलोलुप
मानसिकता के जो प्रतिनिधि लोकसभा व
विधानसभाओं में पहुंचते हैं वे वैधानिक-अवैधानिक तरीके से
सत्ता की दलाली कर अपने आर्थिक स्त्रोत मजबूत करने में
जुटे जाते हैं और आमजन व इलाके की समस्याओं को एकदम
भूल जाते हैं। इसी कारण जनता का विश्वास खो देते हैं। अब ऐसे में दोबारा कमोबेश एक जैसी ही मानसिकता वाले
उम्मीदवारों में से मतदाता किसे चुने ? किन्हीं चुनाव क्षेत्रों में दलबदलू उम्मीदवार बेहद
हास्यास्पद व गंभीर स्थिति पैदा कर देते हैं। ऐसे उम्मीदवार
पिछले चुनाव में जिस पार्टी से चुनाव लड़ रहे होते हैं,
अगली बार दल बदलकर और हवा का रुख भांपकर
किसी अन्य पार्टी से चुनाव लड़ते हैं। ये तथाकथित
तिकड़बाज चुनाव लहर का फायदा उठाकर लगातार सत्ता का दोहन करते रहते हैं। राजनीति में दलबदल का यह
सिद्धांत किस किस्म की नैतिकता है ? परिणामस्वरुप
देश की केंद्र और राज्यों की लोकतांत्रिक सरकारें डा.
अम्बेडकर के इस कथन से दूर जाती दिखार्इ देती हैं, जिसमें
उन्होंने कहा था कि हमें कम से कम दो शर्ते
तो पूरी करनी चाहिए, एक वह स्थिर सरकार हो, दूसरे वह उत्तरदायी सरकार हो ? वर्तमान राजनीति के परिदृष्य में
जो प्रतिनिधि चुनकर आ रहे हैं उनमें ऐसे
प्रतिनिधियों की संख्या ज्यादा होती है जो पद व
धनलोलुप होने के साथ दायित्वहीन होते हैं। इसलिए
स्थिर व उत्तरदायी सरकारों की शर्ते र्इमानदारी से
पूरी नहीं हो रही हैं। किसी भी प्रत्याशी को न चुनने का अर्थ यह कदापि नहीं लेना चाहिए कि संपूर्ण चुनाव
प्रकि्रया या प्रजातांत्रिक व्यवस्था को अस्वीकार
किया जा रहा हैं, बलिक अस्वीकार के अधिकार के हक से
तात्पर्य यह होना चाहिए कि मतदाता अथवा क्षेत्र
का बहुमत व्यवस्था को चलाने वाले ऐसे
प्रतिनिधियों को नकार रहा है जो अपनी निष्क्रियता, लापरवाही और स्वार्थपरता के
जनमानस के समक्ष उदाहरण बन चुके हैं। अस्वीकार किए
गए उम्मीदवारों को दोबारा से चुनाव लड़ने के अधिकार से
भी वंचित रखा जाना चाहिए। वैसे भी संविधान के
अनुच्छेद 19 के भाग ‘क में नागरिक को बोलने व
अभिव्यकित की स्वतंत्रता का अधिकार प्राप्त है, लेकिन निर्वाचन के समय मतदाता के पास जो र्इबीएम
होती है, उसमें केवल मौजूदा उम्मीदवारों में से किसी एक
को चुनने का प्रावधान है, न चुनने का नहीं ? ऐसे में
यदि मतदाता किसी को भी नहीं चुनना चाहता तो उसके
पास कोर्इ विकल्प नहीं होता ? इसलिए जरुरी हो जाताहै
कि अदालत के इस फैसले को राजनैतिक दलों की स्वीकार्यता मिलें।

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