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शिक्षा की बदहाली चुनावी मुद्दा नहीं?

yuva lekhak(AGE-16 SAAL)
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शिक्षा देश और समाज की उन्नति का आईना हुआ
करती है। भारत की आजादी के 65 वर्ष बाद
यहां की आबादी साढ़े तीन गुना बढ़कर 1.20 अरब
हो गई है। बच्चों को पढ़ाने वाले शिक्षकों के
करीब छह लाख पद रिक्त हैं। सर्व
शिक्षा अभियान पर हर साल 27 हजार करोड़ रुपए खर्च किए जाने के बावजूद 80 लाख बच्चे
स्कूलों के दायरे से बाहर हैं, लेकिन
राजनीतिक दलों के समक्ष यह महत्वपूर्ण
चुनावी मुद्दा नहीं है। अफसोस है कि कोई
भी राजनीतिक दल शिक्षा को इस चुनाव में
चर्चा का विषय नहीं बना रहा है। प्राथमिक शिक्षा हो या उच्च शिक्षा, हमारे देश में
शिक्षा में कई तरह की कमियां और खामियां है।
गुणवत्तापूर्ण शिक्षा महत्वपूर्ण चुनौती है।
वंचित और समाज के सबसे निचले पायदान के
बच्चों की शिक्षा दूर की कौड़ी बनी हुई है।
चुनाव में यह महत्वपूर्ण मुद्दा होना चाहिए, लेकिन कोई भी राजनीतिक दल इस विषय
को उठा ही नहीं रहा है। विधायक और सांसद अपने
क्षेत्र विकास कोष से प्राथमिक शिक्षा के
विकास और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा पर क्या खर्च
कर रहे हैं, यह बात कोई नहीं बता रहा है।
दुर्भाग्यपूर्ण है कि कोई भी दल जनता और बच्चों के भविष्य से जुड़े इन विषयों पर
चर्चा नहीं कर रहा है। मानव संसाधन विकास
मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक, देश में
अभी भी शिक्षकों के 6 लाख रिक्त पदों में
करीब आधे बिहार एवं उत्तर प्रदेश में है।
पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, झारखंड, महाराष्ट्र समेत कई अन्य राज्यों में
स्कूलों को शिक्षकों की भारी कमी का सामना
करना पड़ रहा है। देश में 34 प्रतिशत स्कूल ऐसे
हैं जहां लड़कियों के लिए अलग शौचालय
नहीं है। सुदूर क्षेत्रों में काफी जगहों पर
स्कूल एक कमरे में चल रहे हैं और कई स्थानों पर तो पेड़ों के नीचे ही बच्चों को पढ़ाया जाता है।
उच्च शिक्षा में सुधार से जुड़े कई विधेयक
काफी समय से लंबित है और संसद में यह पारित
नहीं हो पा रहे हैं। आईआईटी, आईआईएम, केंद्रीय
विश्वविद्यालयों समेत उच्च शिक्षा के स्तर
पर भी शिक्षकों के करीब 30 प्रतिशत पद रिक्त हैं। साथ ही शोध की स्थिति काफी खराब
है। उच्च शिक्षा में सुधार पर सुझाव देने के
लिए गठित समिति ने जून 2009 में 94
पन्नों की उच्च शिक्षा पुनर्गठन एवं पुनरुद्धार
रिपोर्ट पेश कर दी थी। लेकिन कई वर्ष बीत
जाने के बाद भी अभी तक स्थिति ज्यों की त्यों बनी हुई है। इस
दिशा में कोई खास प्रगति नहीं हुई है।
गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देश के समक्ष
बड़ी चुनौती बनी हुई है। कोई इस बारे में
नहीं बोल रहा। हाल ही में राष्ट्रपति प्रणब
मुखर्जी ने गुणवत्तापूर्ण शिक्षा को देश के समक्ष बड़ी चुनौती करार दिया था। आजादी के
छह दशक से अधिक समय गुजरने के बावजूद देश
में स्कूली शिक्षा की स्थिति चुनौतीपूर्ण
बनी हुई है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय के
आंकडों के अनुसार, देश भर में केवल प्राथमिक
शिक्षा के स्तर पर शिक्षकों के तीन लाख पद रिक्त हैं। कौशल विकास एक ऐसा मुद्दा है
जिसमें भारत काफी पीछे है। युवाओं के बड़े
वर्ग में बढ़ती हुई बेरोजगारी को दूर करने के
लिए कौशल विकास पाठ्यक्रमों की वकालत
की जा रही है। शिक्षकों का काफी समय
तो पोलियो खुराक पिलाने, मतदाता सूची तैयार करने, जनगणना और चुनाव कार्य सम्पन्न कराने
समेत विभिन्न सरकारी कार्यक्रमों पर अमल
करने में लग जाता है और वे पठन पाठन के कार्य
में कम समय दे पाते हैं। आंकड़ों के मुताबिक,
देश के 12 राज्यों में 25 प्रतिशत से अधिक
बच्चे मध्याह्न भोजन योजना के दायरे से बाहर हैं। इस योजना को स्कूलों में छात्रों के
दाखिले और नियमित
उपस्थिति को प्रोत्साहित करने की अहम
कड़ी माना जाता है। देश की आधी मुस्लिम
आबादी की साक्षरता दर राष्ट्रीय औसत से
काफी कम है और उच्च शिक्षा में अल्पसंख्यक वर्ग के बच्चों की सकल नामांकन दर गैर-
मुस्लिम बच्चों की तुलना में आधी है।
शिक्षा की बदहाली देश की अहम समस्या है।
आसन्न आम चुनाव में यह राजनीतिक दलों के
लिए महत्वपूर्ण मुद्दा होना चाहिए।

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