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भारत की स्वतंत्रता के सड़सठसाल : “देशहित में आखिर हुआक्या ? “

yuva lekhak(AGE-16 SAAL)
yuva lekhak(AGE-16 SAAL)
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भारत को स्वतंत्र हुए भी सड़सठ साल हो गए हैं और साथ
में भारतीय संसद भी साठ साल से ऊपर की हो गई है।
भारतीय संसद पर जिस तरह अब तक लिखा गया है ,
दिखाया गया है और जिस तरह उसे महिमामंडित
किया गया है , विशेषकर राजनीतिक तबके की ठकुर-
सुहाती करने वाले स्वयंभु-पंडितों के द्वारा , उसे देख कर मशहूर व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई जी का कहा हुआ याद
आता है कि ‘इस देश के बुद्धिजीवी सब शेर हैं, पर वे
सियारों की बारात में बैंड बजाते हैं।’ राजनीति के
जानकार एवं मीडिया के धुरंधर शेर भी सियार
रूपी सांसदों की हुआँ – हुआँ में सुर तो मिलाते हैं पर
समीक्षा का दायित्व भूल जाते हैं कि संसद ने अपने साठ साल से ऊपर के जीवनकाल में आखिर
किया क्या ? अनैतिकता, झूठ, भ्रष्टाचार, तिकड़म,
महंगाई और गप्पबाजी के अलावा इन छह दशकों के ऊपर
के कार्यकाल में संसद का कोई अतिरिक्त सार्थक
उत्पाद हो तो कोई बताए ? क्या आपको यह
नहीं लगता कि आजादी के बाद से ही संसद में विराजमान होने वाले महानुभावों ने पूरे देश को और देश
की सम्पूर्ण नागरिकता को इस तरह घेरे में जकड़
दिया है कि हर नागरिक खुद को सवालों के सामने
खड़ा पाता है और उस मुहावरे का सार समझने
की जद्दोजहद करता है, जो आजादी और गांधी के नाम
पर पिछले सड़सठ सालों से चल रहा है, जिससे न भूख मिट रही है, न महंगाई की निर्बाध गति पर कोई
रुकावट है, न संसदवालों का भ्रष्टाचार थम रहा है और न
व्यवस्था ही बदल रही है। हरेक वर्ष आजादी के जलसे के
आयोजनों का पूरा केंद्रीकरण देश की प्रतिष्ठा और
लोकतन्त्र के औचित्य के खतरे में पड़ते जाने
की चिंता व्यक्त करते हुए होता है l भ्रष्ट जन-
प्रतिनिधियों की चिंता नागरिकों के जागरूक
होने से गहराती है, यह स्वाभाविक है, लेकिन इस चिंता से भ्रष्टाचार जाता हुआ नहीं दिख
रहा बल्कि गिरोहबंदी गहराती ही दिख रही है।
आपने देखा होगा कि अन्य दिनों में देश
की अस्मिता को दांव पर रखने
वाला जनप्रतिनिधि भी इस अवसर पर देशहित
की बातें करता है , आजादी के नग्मे दुहराता है , तिरंगे की शपथ लेता है l यह अनुशासन उसका गिरोहबंद
अनुशासन है , एक छदयम -जाल बुनने की कोशिश ।
राजनीतिक तबके ने भ्रष्टाचार, चोरी-बटमारी, महंगाई-
अराजकता और चारित्रिक घटियापन के सड़सठ
सालाना उत्पाद पर कभी गंभीर चिंता नहीं जताई है ।
आजादी के बाद से आज तक किसी भी जनप्रतिनिधि में यह आत्मनिर्णय
भी नहीं जागा कि वो सदन में खड़ा होकर यह
कहता कि आज से वह भ्रष्टाचार में शामिल नहीं होगा,
सदन के सत्र को अनावश्यक रूप से बाधित कर देश के
धन के अपव्यय का हिस्सेदार नहीं बनेगा। लेकिन
ऐसा नहीं हुआ और हम सबने अपने जन- प्रतिनिधियों के अब तक के रवैये से यही महसूस
किया कि … ” भूख विकास के मुद्दे ठंढे बस्ते में / घोटालों की ताप हमारी संसद में / किसने लूटा देश ये सारा जग जाने/ मिलते नहीं सबूत हमारी संसद में…” स्पष्ट है कि आजादी के बाद से ही देश के
राजनीतिज्ञों ने जनता और जरायम पेशागरों के बीच
की सरल रेखा को काटकर स्वस्तिक चिन्ह
बना लिया है और हवा में एक चमकदार शब्द फेंक दिया है
‘जनतंत्र’, और हर बार यह शब्द
राजनीतिज्ञों की जुबान पर जिंदा पाया जाता है। सड़सठ साल की आजादी कितनी भयावह है , साठ साल
से ऊपर की संसद कितनी कुरूप है उसे हम सब ने अपने
अनुभवों से जाना है, देखा है और भोगा है। हम ही वह
जनतंत्र हैं जिस में जनता का सिर्फ नाम
भुनाया गया और संसद इसकी गवाह बनती रही। ये सांसद
सब के सब भ्रष्टाचार के आविष्कारक हैं, अण्वेषक हैं, इंटरप्रेटर हैं, वकील हैं, वैज्ञानिक हैं, अध्यापक हैं,
दार्शनिक हैं, या हैं किंकर्तव्यविमूढ़ चश्मदीद… !!
मतलब साफ है कि कानून और संविधान
की भाषा बोलता हुआ यह अपने व्यक्तिगत
हितों को सर्वोपरि मानने वाला एक संयुक्त परिवार
है। किसी ने ठीक ही कहा है ” जब जनदूत हमारा संसद
जाकर धारा में बह जाता हो और जब चोरी और
दुर्नीति की वो आग लगाने लगता हो, तब पूरी संसदीय
व्यवस्था को फ़ूँक ताप लेने का मन करता है… शासन-तंत्र-
बल के घेरे में नेता कोई जब स्वतन्त्रता व जनतंत्र जाप
करने लगता हो, तब- तब संसद में आग लगाने का अपना मन करता है। “

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